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फ़िल्म "72 हूरें रिव्यू " || 72 Hoorain Review In Hindi

  राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म निर्देशक संजय पूरन सिंह चौहान की फिल्म ’72 हूरें’ मजहब के नाम पर कुकर्म करने वालों को एक ज़ोरदार तमाचा जड़ने का काम करती है। 72 Hoorain Review In Hindi :  फिल्म का नाम : 72 हूरें एक्टर्स : पवन मल्होत्रा, आमिर बशीर निर्देशन: संजय पूरन सिंह चौहान निर्माता: गुलाब सिंह तंवर, किरण डागर, अनिरुद्ध तंवर सह-निर्माता: अशोक पंडित रेटिंग : 5/3.5 फिल्म "72 हूरें" सदियों से धर्मांध, कट्टरता और आतंकवाद का शिकार हो रहे दो युवकों पर आधारित है कि कैसे एक मौलाना के द्वारा धर्म के नाम पर लोगों को बहकाया जाता है और उन्हें 72 हूरें, जन्नत जैसे सुनहरें सपने दिखाते हुए टेररिज्म के जाल में फंसाया जाता है। फिर इस जाल में फंसे हुए लोगों से आतंकवादी हमले करवाया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि जिहाद के बाद जन्नत में उनका ज़ोरदार स्वागत होगा और 72 हूरें उनको वहां मिलेंगी। उनके अंदर 40 मर्दों की ताकत आ जाएगी और उन्हें वहां ऐश मौज करने का अवसर मिलेगा। कहानी का आरंभ मौलाना के इन्हीं ब्रेन वाश करने वाली तकरीरों से होती है। उसकी बातों और जन्नत तथा 72 हूरों के लालच में हाकिम

आख़िर क्यों हुआ था महाभारत का युद्ध ? || Aakhir Kyo'n Huaa Tha Mahabharat Ka Yuddh



Mahabharat Hone Ke Kaaran !


आज हम श्रीमद् भागवत गीता की पृष्ठभूमि के बारे में चर्चा करेंगे। यानि हम उस कहानी को समझने का प्रयास करेंगे जिसके कारण इसकी ज़रूरत पड़ी। 

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि सनातन धर्म में श्रीमद् भागवत गीता का व्यापक पठन पाठन होता रहा है लेकिन यह मूलत संस्कृत महाकाव्य महाभारत के उपकथा के रूप में जाना जाता है। महाभारत में वर्तमान कलयुग की घटनाओं का भी विवरण मिलता है। इसी युग के आरंभ में आज से लगभग 5000 साल पहले भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र तथा परम भक्त कुंती पुत्र अर्जुन को भगवद गीता का उपदेश दिया था। उनका यह उपदेश मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ताओं में से एक है, जो उस महायुद्ध के आरंभ से ठीक पहले देवकी नंदन कृष्ण और अर्जुन के बीच हुई। यह धृतराष्ट्र के 100 पुत्रों तथा उनके चचेरे भाई पांडव पुत्रों के बीच होने वाला भीषण युद्ध था।

धृतराष्ट्र और पांडू दोनों सगे भाई थे जिनका जन्म महान कुरु वंश में हुआ था और वे राजा भरत के वंशज थे जिनके नाम पर ही इसका नाम महाभारत नाम पड़ा। बड़े भाई धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे इसलिए हस्तिनापुर का राज सिंहासन उन्हें न मिलकर उनके छोटे भाई पांडु को मिला। महाराज पांडू की मृत्यु कम उम्र में हो गई थी अतः उनके पांच पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव घृतराष्ट्र के ही देख रेख में ही पले बढ़े। क्योंकि उन्हें कुछ काल के लिए हस्तिनापुर का राजा बना दिया गया था। इस तरह घृतराष्ट्र और पांडु पुत्र एक ही राज्य महल में एक साथ बड़े हुए। कौरव और पांडव दोनों को गुरु द्रोणाचार्य ने सैन्य कला तथा शास्त्र विद्या में पारंगत किया। साथ ही पूज्य गंगा पुत्र भीष्म पितामह उनके परामर्शदाता रहे। धृतराष्ट्र के पुत्र विशेषतः सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन पांडवों से घृणा और ईर्ष्या करता था। राज्य सत्ता की लालच में आ कर धृतराष्ट्र पांडु पुत्रों की जगह अपने पुत्रों को राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। इस प्रकार धृतराष्ट्र की सहमति से दुर्योधन ने पांडु पुत्रों की हत्या करने का षड्यंत्र रचा और राजगद्दी हड़पनी चाही। लेकिन पांचो पांडव अपने चाचा विदुर तथा अपने ममेरे भाई भगवान श्री कृष्ण के संरक्षण में रहने के कारण अनेक प्राण घातक आक्रमणों के बाद भी सुरक्षित बच गए।

भगवान श्री कृष्णा कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे उन्हें साक्षात परम परमेश्वर का अवतार माना जाता है जिन्होंने इस धरा पर धर्म की स्थापना हेतु अवतार लिया था और पांडवों के रक्षक की भूमिका निभा रहे थे। वो पांडवों की माता कुंती के भतीजे थे इस तरह संबंधी तथा धर्म के पालक होने के रूप में वे सदा धर्म परायण पांडु पुत्रों का पक्ष लेते रहे और उनकी रक्षा करते रहे। किंतु मौका देखकर चतुर दुर्योधन ने पांडवों को द्यूत क्रीड़ा यानी चौसर खेलने की चुनौती दी। उस निर्णायक प्रतियोगिता में दुर्योधन तथा उसके भाइयों ने पांडवों की पत्नी द्रौपदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और फिर उसे राजाओं तथा राजकुमारों की भरी सभा के मध्य निर्वस्त्र करने का भरसक प्रयास किया। लेकिन कृष्ण की कृपा से द्रौपदी की रक्षा हुई। उस क्रीड़ा में छल प्रयोग के कारण पांडवों की हार हो गई तथा उन्हें अपने राज्य से वंचित होना पड़ा, साथ ही 13 वर्ष तक वनवास के लिए जाना पड़ा। 

वनवास से लौट कर पांडवों ने दुर्योधन से अपना राज्य मांगा किंतु दुर्योधन ने साफ़ इनकार कर दिया। यहां तक कि पांडवों ने अपना पूरा राज्य न मांग कर केवल पांच गांव की मांग रखी किंतु दुर्योधन ने सूई की नोक भर भी भूमि देने के लिए तैयार नहीं हुआ। अभी तक पांडव सहनशील बने हुए थे मगर अब उनके लिए युद्ध करना अनिवार्य हो गया। विश्व भर के राजकुमारों में से कुछ धृतराष्ट्र के पुत्रों के पक्ष में थे तो कुछ पांडवों के पक्ष में। उस समय श्री कृष्ण स्वयं पांडू पुत्रों का शांति संदेश लेकर हस्तिनापुर के राज्यसभा में गए लेकिन उनके आग्रह को अस्वीकार कर दिया गया। तब एक ऐसा भीषण युद्ध निश्चित हो गया जो पहले कभी इस धरती पर नहीं हुआ था। पांडवों ने कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में पहचान लिया था लेकिन कौरव उन्हें नहीं पहचान पाए थे। फिर भी श्री कृष्ण ने उनकी इच्छा अनुसार ही युद्ध में सम्मिलित होने का प्रस्ताव रखा। ईश्वर के रूप में वह युद्ध करना नहीं चाहते थे किंतु जो भी उनकी सेवा का उपयोग करना चाहता, कर सकता था। शर्त सिर्फ़ इतनी थी कि एक ओर कृष्ण की संपूर्ण सेना रहेगी तथा दूसरी और वे स्वयं रहेंगे लेकिन युद्ध नहीं करेंगे। सिर्फ़ एक मार्गदर्शन तथा सहायक के रूप में शामिल रहेंगे। राजनीति में कुशल दुर्योधन ने कृष्ण की सेना ले ली जबकि पांडवों ने कृष्ण को चुना। 

इस प्रकार श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी बने और उन्होंने उसे सुप्रसिद्ध धनुर्धर का रथ हांकना स्वीकार किया। इस तरह हम उस बिंदु पर पहुंच जाते हैं जहां से भागवत गीता का शुभारंभ होता है। जब दोनों ओर के सैनिक के युद्ध के लिए तैयार खड़े होते हैं तो धृतराष्ट्र अपने सचिव संजय से पूछ रहे हैं कि रणभूमि में क्या हो रहा है। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन सामने अपने सगे संबंधियों को देख कर मोहवश युद्ध से मुंह मोड़ लेते हैं और यही श्रीमद् भगवद गीता की पृष्ठभूमि बनती है और भगवान श्री कृष्ण के मुख से एक महान उपदेश का उद्भव होता है। 

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